विवाह के आठ प्रकार वैदिक परंपरा से आधुनिक समाज तक Eight Types of Hindu Marriages From Vedic Traditions to Modern Society
हमारे धर्म शास्त्र में वेदों पुराणों और स्मृतियों को प्रमाण माना जाता है। स्मृतियां धर्म ग्रंथ है जो समाज को सही दिशा प्रदान करती है। स्मृतियों की संख्या 25 से 30 है। स्मृति ग्रंथों में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं।
- ब्रह्म विवाह
- दैव विवाह
- आर्ष विवाह
- प्रजापत्य विवाह
- असुर विवाह
- गन्धर्व विवाह
- राक्षस विवाह
- पैशाच विवाह
गंधर्व विवाह अति उत्तम हो यदि उसे ब्रह्म, दैव,प्रजापत्य विवाह में परिवर्तित कर दिया जाए। एकांत में यदि वर – कन्या स्वयं इच्छा से गंधर्व विवाह करते हैं , तो उसे अशुभ कहा जाता है। क्योंकि कोई साक्षी न होने के कारण वर, कन्या को ठुकरा सकता है या कोई अनर्थ कर सकता है। अतः अशुभ की आशंका के कारण यह उत्तम नहीं कहा जाता है। उदाहरण के लिए जैसे:- गंधर्व विवाह में राजा दुष्यंत ने शकुंतला के साथ अनर्थ किया। गंधर्व विवाह और प्रेम विवाह में अंतर स्थापित करना आवश्यक है। पृथ्वी पर सबसे पहले प्रेम विवाह भगवान शिव और माता पार्वती ने किया । किंतु यह विवाह पूर्ण वैदिक पद्धति तथा परिजनों और समाज की सहमति से हुआ। अत: यह अति उत्तम विवाह माना जाता है। आज समाज की आवश्यकता है की माता-पिता प्रेम विवाह को स्वीकार करें, तथा उसे दैव व प्रजापत्य विवाह में परिवर्तित करें। क्योंकि कन्या की इच्छा के विपरीत जो विवाह किया जाता है वह निकृष्ट विवाह होता है। देव उसको कभी भी स्वीकार नहीं करते हैं। कन्या की इच्छा के विरुद्ध जो विवाह होता है उसे भगवान कभी भी आशीर्वाद प्रदान नहीं करते हैं।
दैव ,ब्रह्म, प्रजापति विवाह ही समाज में मान्यता प्राप्त तथा सुरक्षित व शुभ होता है।
- ब्रह्म विवाह:- यह सबसे उत्तम प्रकार का विवाह माना जाता है। क्योंकि इसमें वर तथा कन्या दोनों की सहमति से एवं वैदिक रीति रिवाज के अनुसार विवाह किया जाता है । इस विवाह में वर का पूजन करके कन्या का पाणिग्रहण करवाया जाता है। यह ब्राह्मणों और क्षत्रियों में एक प्रचलित विवाह पद्धति है। इसमें माता-पिता योग्य वर तथा कन्या का चयन कर उनकी सहमति से उनका विवाह करवाते हैं। इस विवाह में किसी भी प्रकार की वस्तुओं का लेनदेन निषिद्ध होता है।यथा:- शिव- पार्वती, वसुदेव- देवकी विवाह।
- दैव विवाह :- इस विवाह में कन्या को किसी धार्मिक कार्य या समाज के कल्याण के लिए वर को दिया जाता है। इसमें भी वर का पूजन किया जाता है। तथा कन्या पक्ष के द्वारा गाय इत्यादि दान में दी जाती है। इस विवाह में विवाहित दंपति पूर्ण रूप से समाज के कल्याण के लिए समर्पित होते हैं।यथा:- अगस्त्य-लोपामुद्रा, श्रृंगी ऋषि- शांता , कर्दम ऋषि – देवहूति, कपिल ऋषि – केशनी, अत्रि ऋषि – अनुसुइया।
- आर्ष विवाह:- यह विवाह ऋषियों से संबंधित माना जाता है। जिसमें वर पक्ष कन्या के पिता को गाय या बैल दान में देकर कन्या के साथ पाणिग्रहण करता है । वर पक्ष के द्वारा कन्या पक्ष को भेंट दी जाती है।
- प्रजापत्य विवाह:- इस विवाह में कन्या के पिता नवदंपत्ति को गृहस्थ धर्म के पालन का आदेश देते हैं।यथा:- शिव- सति, मनु- शतरूपा, गौतम – अहिल्या।
- असुर विवाह: – इस प्रकार के विवाह में वर, कन्या के परिजनों को धन देकर कन्या को खरीदता है। यह विवाह वर्तमान काल में कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित है। जब वर को कन्या नहीं मिलती है, तब वह अन्य राज्यों से कन्या खरीद कर विवाह करता है।
- गंधर्व विवाह: – यह प्रेम विवाह है । इसमें वर तथा कन्या दोनों अपनी इच्छा से एकांत में ईश्वर को साक्षी मानकर विवाह करते हैं। यथा:- दुष्यंत- शकुंतला,श्री कृष्ण – रुक्मणी, पूरूरवा – उर्वशी , लक्ष्मी- नारायण , अर्जुन – सुभद्रा, गंगा – शांतनु।
- राक्षस विवाह:- यह विवाह बलपूर्वक किया जाता है। जिसमें वर , कन्या को बलपूर्वक उठाकर ले जाता है और विवाह करता है। यथा :- रावण – मंदोदरी, मेघनाद – सुलोचना।
- पैशाच विवाह :- यह विवाह सबसे निम्न कोटि का विवाह माना जाता है। इस विवाह में कन्या को धोखे से या नशे में विवाह के लिए बाध्य किया जाता है । यह निकृष्ट कोटि का विवाह माना जाता है । आज के समय में “लव जिहाद” इसका एक उदाहरण है ।
जातिगत विवाह पद्धति वैदिक व पौराणिक काल में बिल्कुल भी प्रचलित नहीं थी। विवाह जाति देखकर नहीं अपितु गुण, संस्कार, योग्यता की बराबरी देखकर किया जाता था यदि कन्या शास्त्रों में अध्ययन अध्यापन में रुचि रखती है, तो किसी ऋषि से विवाह कर दिया जाता था। यथा गार्गी – याज्ञवल्क्य। यदि कन्या राजनीति में रुचि रखती है, तब उसका विवाह किसी क्षत्रिय से किया जाता था। यथा – दशरथ- कैकयी । जिस कन्या को समाज के उत्थान के लिए कार्य करना है, उसका विवाह किसी सामाजिक व्यक्ति के साथ कर दिया जाता था। यथा- अगस्त्य-लोपामुद्रा, मनु-सतरूपा। यदि कन्या की रुचि चिकित्सा शास्त्र में है, तो उससे संबंधित अर्थात् चिकित्सक से ही विवाह किया जाता था । जैसे – च्यवन ऋषि- सुकन्या (राजा शर्याती की पुत्री)। क्षत्रिय कन्याओं का विवाह सुयोग्य वर की तलाश करके अन्य वर्णों में भी किए जाने के अनेक उदाहरण हमारे सामने आते हैं। यथा- बलराम – रेवती, कृष्ण – रुक्मिणी, रायण – राधा। अतः स्पष्ट है कि विवाह कन्या की इच्छा पर ही आधारित था।
ऋग्वेद के दसवें मंडल के 85 वे सूक्त का 9 वा मंत्र है –
सोमो वधूयुरभवद। नास्तामुभा वरा.सूर्या यत्पत्ये शंसन्मतीं मनसा सिवताददात……
इस मंत्र का अर्थ है कि :- सूर्य की पुत्री सूर्या ने विवाह की कामना की। किंतु सविता सूर्या को सोम की पत्नी बनना चाहती थी। सूर्या की इच्छा थी कि वह अश्विनी कुमार से विवाह करें । अतः सूर्य देव ने अपनी बेटी की इच्छा को मानकर उसका विवाह अश्विनी कुमार से ही किया।
अतः स्पष्ट है कि वैदिक और पौराणिक काल में विवाह कन्या की इच्छा तथा वर की योग्यता के आधार पर ही किए जाते थे।
सजातीय विवाह परंपरा की शुरुआत: –
शुरुआत में समान वर्ण में विवाह परंपरा की शुरुआत इसलिए हुई, क्योंकि लोगों ने देखा कि पति- पत्नी में वैचारिक व पारिवारिक मतभेद होने लगा है । इन मतभेदों का कारण था वर तथा उसके परिवार के खान-पान, रहन-सहन, धर्म-कर्म, काम-काज का भिन्न होना, विचारों का भिन्न होना। लोगों ने जब यह देखा तब यह सुनिश्चित किया की कन्या को ऐसे परिवारों में दिया जाए जहां दोनों परिवारों में सभी प्रकार की समानताएं हो । ताकि कन्या को उस परिवार में ज्यादा नया ना लगे और जीवन बिताने में कठिनाई न हो । लेकिन फिर भी कन्या की इच्छा सर्वोपरि व सर्वमान्य होती थी । जातीय विवाह से कन्या को दूसरे घर परिवार में समान वातावरण मिलता था जिसके कारण कन्या प्रसन्नता पूर्वक नए स्थान पर अपनापन महसूस करती थी।
विवाह पद्धति में विकृति का एकमात्र कारण “मुगल” थे। मुगल हिंदू कन्याओं, स्त्रियों को उठाकर ले जाते थे ,और उन्हें अपने हरम में रखकर शोषण करते थे। आता है मुगलों के डर के कारण ही भारत में पर्दा प्रथा, रात्रि विवाह, कन्या की अनिच्छा से विवाह, बाल विवाह, स्त्री शिक्षा का बंद होना आदि की शुरुआत हुई। हिंदुओं में अपनी स्त्रियों के लिए इस तरह डर भर चुका था कि, उन्होंने स्वयं ही अपने समाज में अनेक प्रकार की कुरीतियों व कुप्रथाओं को जन्म दिया । कई पीढ़ियां गुजर जाने के कारण आज का समाज इन कुरीतियों व कुप्रथाओं को ही अपनी परंपरा और इतिहास मान चुका है।
आज कुछ पढ़े-लिखे गंवार प्रश्न करते हैं कि, वैदिक मंत्रों का उच्चारण यदि रात्रिकाल में नहीं होता है तो हिंदू लोग रात्रिकाल में विवाह क्यों करते हैं। प्रश्न करना आसान है किंतु उस प्रश्न के उत्तर की जड़ को समझाना मुश्किल है। इसके बाद अंग्रेज आए और उन्होंने भी स्त्री शोषण की परंपरा को जारी रखा। मुगलों से पहले स्त्री स्वतंत्र थी, शिक्षित थी, सबला थी, स्त्रियां गुरुकुलों में पढ़ती और पढ़ाती थी। विवाह के लिए स्वयं वर चुनने के लिए भी स्त्री स्वतंत्र थी। स्त्री धन पर किसी का भी अधिकार नहीं होता था। कुछ लोग धर्मग्रंथो का उदाहरण देते हैं, किंतु हिंदू धर्मग्रंथो के साथ में छेड़छाड़ की गई है।
एक पत्नी व्रत धारण करने वाले राम पर अनेक पत्नीयों का लांछन लगाया गया। फिर भी हिंदुओं को यह समझ नहीं आया कि अन्य धर्मग्रन्थों के साथ भी छेड़छाड़ की गई है। अब सत्य को समझने के लिए धर्म पर तथा धर्म की सटीकता पर पूर्ण विश्वास की आवश्यकता है। आज हिंदुओं को धर्म के प्रति कट्टरता की आवश्यकता है । कई प्रमाण है, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि, मुगलों व अंग्रेजों ने धर्मग्रंथो में कई ऐसे परिवर्तन किए हैं जिनसे हिंदू अपने ही धर्म में भ्रमित हो जाए और उस पर विश्वास करना छोड़ दें। किंतु हिंदुओं को अपनी बुद्धि का प्रयोग करके अपने धर्म पर अटूट विश्वास की आवश्यकता है। भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है कि अपने धर्म में मर जाना भी अति उत्तम है। मुगलों ने,अंग्रेजों ने जातिगत भेदभाव स्थापित किए हैं, उन्हें भूलकर अपनी संतान को विवाह की स्वतंत्रता देनी चाहिए जाति को मिटाकर हिंदुत्व को महत्व देना चाहिए।
संतान की सुरक्षा के नाम पर अत्याचार ना करें। क्योंकि जो प्रारब्ध में लिखा है, उसे स्वयं भगवान भी नहीं बदल सकते हैं। इसीलिए श्रीमद् भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि प्रारब्ध सबको भुगतना ही होता है, चाहे वह मनुष्य हो या दैव,दानव। उत्तम संस्कारों के साथ संतान को स्वतंत्र छोड़ना चाहिए। पेड और फल जब तक पेड़ पर है तब तक पेड़ की संपत्ति है, और पेड़ का उन पर अधिकार है।
परंतु पेड़ से अलग होने पर उनका प्रारंभ और कर्म ही उनके जीवन को दिशा देते हैं। इस प्रकार माता-पिता पेड़ है और फल- पत्ते संतान हैं । परिपक्व होने के बाद जिस प्रकार पत्ते व फल की जिम्मेदारी पेड़ की नहीं होती है, उसी प्रकार संतान के परिपक्व होने पर माता-पिता की जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है। आज के समय में कन्या की इच्छा तथा विवाह पद्धति पर पुनः विचार की आवश्यकता है। रक्षा करने का दम्भ पालने की आवश्यकता नहीं है।
क्योंकि समय आने पर रक्षक समर्थ होते हुए भी रक्षा नहीं कर पाता है। इसके कई उदाहरण पुराणों में मिलते हैं। यथा – सर्व समर्थ राम की पत्नी को रावण उठाकर ले गया। बलशाली मय दानव की पुत्री को रावण ले गया।शेषनाग की पुत्री सुलोचना को मेघनाथ उठाकर ले गया। शक्तिशाली रावण की बहन सूर्पनखा को भी विद्युतजिव्हा उठा कर ले गया और विवाह किया। माता– पिता और भाई की इच्छा से विवाह करने वाली देवकी को भी कारावास झेलना पड़ा। शिव पत्नी सती, द्रोपदी , सीता, कुंती ऐसे कई उदाहरण है, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि कर्म और प्रारब्ध से ही जीवन को दिशा मिलती है। अतः संतान को स्वेच्छा से विवाह करने की अनुमति देनी चाहिए। इस संसार में ईश्वर के अतिरिक्त कोई किसी की रक्षा नहीं कर सकता है। अतः ईश्वर की शरण लेकर कर्म करना चाहिए।