The importance of yoga in the Gita

गीता मे योग का महत्व | The importance of yoga in the Gita

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श्रीमद् भागवत गीता का उपदेश भगवान श्री कृष्ण के द्वारा महाभारत का युद्ध आरंभ होने के पहले अर्जुन को कर्तव्य अकर्तव्य का बोध कराने हेतु दिया गया था। यह ग्रंथ महाभारत की भीष्म पर्व का अंग है गीता में 18 अध्याय तथा 700 श्लोक हैं।श्रीमद् भागवत गीता की गणना प्रस्थान त्रयी में की जाती है । प्रस्थान त्रयी में उपनिषद , ब्रह्म सूत्र और श्रीमद् भागवत गीता है। उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, ब्रह्म सूत्रों को न्याय प्रस्थान तथा गीता को स्मृति प्रस्थान कहा गया है।


यह गीत रूपी अतः ज्ञान मार्गशीर्ष महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी को दिया गया था। यह ज्ञान श्री कृष्ण ने अपने परम सखा अर्जुन को मोहनाश के लिए दिया गया था । गीता के अधिकतम अध्यायों का नाम “योग” इस रूप में है,यथा – अर्जुन विषादयोग, सांख्ययोग ,कर्मयोग , ज्ञानकर्मसन्यासयोग , कर्मसन्यासयोग , आत्मसंयमयोग, ज्ञानविज्ञानयोग ,अक्षरब्रह्मयोग , राजगुह्ययोग , विभूतियोग , विश्वरूपदर्शन, भक्तियोग, क्षेत्रक्षेत्रज्ञविचार, गुणत्रयविभागयोग, पुरुषोत्तमयोग , देवासुरसंपत्तिविभाग , श्रद्धात्रयविभागयोग,
मोक्षसन्यासयोग है। मात्र तीन अध्यायों के नाम योग नहीं है, अध्याय 11, 13 तथा 16 ।


भगवान श्री कृष्णा परम योगी हैं। भगवान ने स्वयं गीता में कहा यत्र “योगेश्वरोकृष्ण: ……..।”तथा अन्य भक्त जनों में यथा मीरा जी ने अपने पद्य में कहा है कि – “जोगीडा कब रे मिलेगो आए” । तथा अन्य भगवती कथाओं के अनुसार भी कहा है कि श्री कृष्ण के समान कोई योगी इस पृथ्वी पर नहीं है। भगवान श्री कृष्ण गीता में रहते हैं कि यह संसार मेरी योग माया का एक क्षणभंगुर मात्र है। अतः स्पष्ट है कि भगवान श्री कृष्ण स्वयं योगेश्वर है, तथा संसार को भी योग का सहारा लेकर भवसागर पार करने का उपदेश देते हैं। योग का महत्व सामान्य जनों को समझने के लिए ही प्रत्येक अध्याय का नाम योग रखा गया है।


संपूर्ण गीता में योग तथा कर्म का ही अत्यधिक महत्व जीवधारी के लिए कहा गया है। मन को वश में करके तथा सभी इंद्रियों को आत्म तत्व में निहित करके सुख-दु:खादि, आसक्ति , लोभ,मोह ,काम का त्याग करके सभी परिस्थितियों में समान भावना रखकर ,शत्रु मित्र आदि में सम भावना एवं ईश्वर को ही कर्ता मानकर कर्म करना चाहिए यह उपदेश श्री कृष्ण गीता में देते हैं। परमात्मा को ही सर्वस्व मानकर तथा सभी कर्तव्य कर्मों का कर्ता मानकर कर्म करते रहना चाहिए। वह परब्रह्म परमात्मा ही परम सत्य है वह सभी प्रकार के प्राणधारीयो में अदृश्य रूप में है इसको तत्व से जानना चाहिए। जो पुरुष ईश्वर को तत्व से जानते हैं तथा सभी कर्म भगवान में अर्पण करके शास्त्र सम्मत कर्म करते हैं वह ही मोक्ष के अधिकारी होते हैं। जीवन के प्रत्येक समय में सात्विकी वृत्ति को अपना कर जीवन जीना चाहिए तथा चित्त की वृत्तियों को शांत करके इंद्रियों को वश में करके योग के द्वारा ईश्वर को तत्व से जाना नहीं का प्रयत्न करना चाहिए। वह परब्रह्म परमात्मा ही सभी प्राणियों में आत्मा के रूप में स्थित है , समस्त जगत की उत्पत्ति, प्रलय ,पोषण का कार्य उस सच्चिदानंदघनपरमात्मा का ही कार्य है, यह मानकर बिना फल की इच्छा के कर्म करते रहना चाहिए। स्वयं के लाभ के लिए दूसरों को कष्ट न देकर ,श्रद्धा युक्त होकर ,वेदोक्त कर्मों को करते रहने की धारणा ही मोक्ष प्रदान करने वाली है। जीवन मरण के चक्र से छूटना तथा उस परब्रह्मपरमात्मा चतुर्भुज रूप धारी भगवान विष्णु के धाम को प्राप्त करना मोक्ष का अर्थ है। मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य ही मोक्ष की प्राप्ति है ,अर्थात उस परब्रह्म में लीन होना ही अंतिम अवस्था है। यह अद्भुत ज्ञान तथा सभी शास्त्रों का सारांश भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता के रूप में दिया। श्रीमद् भागवत गीता हिंदू धर्म का परम पवित्र ग्रंथ है। गीता के अद्भुत ज्ञान को सामान्य जनों के लिए उपलब्ध करवाने के कारण ही भगवान श्री कृष्ण जगतगुरु कहलाते हैं।

।। कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् ।।
।। इति।।


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