अष्टविनायक :-  गणपति के आठ अवतार

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भारत देश का दस दिवसीय उत्सव – गणेश उत्सव । यह उत्सव भाद्रपद मास की चतुर्थी तिथि से चतुर्दशी तिथि तक मनाया जाता है । इस अवसर पर भगवान् गणेश की पार्थिव प्रतिमा की प्रणा प्रतिष्ठा करके घर- घर में पूजा की जाती है । भारतीय शास्त्र परम्परा के अनुसार माँ पार्वती के द्वारा चतुर्थी तिथि को भगवान् गणेश का पार्थिव निर्माण कर उनमें प्राण स्थापित किये थे । उस अलौकिक कृत्य को स्मरण कर इस कालावधि में सम्पूर्ण देश में भगवान् गणपति का विशेष पूजन आदि किया जाता है ।

हस्तीन्द्राननमिन्द्रचूडमरुणच्छायं त्रिनेत्रं रसा –
दाश्लिष्टं प्रियया सपद्मकरया स्वाङ्कस्थया सन्ततम् ।
बीजापूरगदाधनुस्त्रिशिखयुक्चक्राब्जपाशोत्पल –
व्रीह्यग्रस्वविषाणरत्नकलशान् हस्तैर्वहन्तं भजे ।।

प्रथमपूज्य गणपति का मुख गजपति गजेन्द्र के समान है, उनके शिखर पर चन्द्रमा सुशोभित है तथा वे अरुण के समान कान्ति वाले है । प्रभु अपने अंक में विराजित पद्महस्ता प्रिया के द्वारा निरन्तर प्रेमपूर्वक आश्लिष्ट हैं । भगवन् श्रीगणेश की दस भुजाएं हैं जिनमें दाडिम, गदा, धनुष, त्रिशूल, कमल रुपी चक्र, पाश, उत्पल, धान्यगुच्छ, स्वदन्त और रत्नजडित कलश स्थित हैं । ऐसे दशभुज गणपति का ध्यान करते हैं ।

हमारे शास्त्रों में भगवान् गणेश के अनेकों रुपों का वर्णन किया गया है । किन्तु उनमें से आठ रुप महत्वपूर्ण है जिन्हे आठ अवतार या अष्टविनायक के नाम से भी जाना जाता है ।

गणपति के आठ अवतार

  1. वक्रतुण्ड
  2. एकदन्त
  3. महोदर
  4. गजानन
  5. लम्बोदर
  6. विकट
  7. विघ्नराज
  8. धूम्रवर्ण

गणेश पुराण के अष्टम खण्ड में आठ असुरों के विनाश के साथ इन आठ अवतारों का वर्णन प्राप्त होता है । ये आठ असुर केवल उसी समय नहीं थे ये आज भी हैं और इनसे रक्षा के लिए ही भगवान् गणपति को हम अपने-अपने घरों में स्थापित करते हैं । ये आठ असुर आठ प्रकार के भावनात्मक दोष हैं जो हमारे मन और बुद्धि को दूषित करते हैं । भगवान् गणपति बुद्धि के देवता भी कहे जाते हैं । अतः हम उनसे बुद्धि की निर्मलता की प्रार्थना करते हैं । हम गणेश पुराण के सन्दर्भ के साथ प्रत्येक दोषात्मक असुर और गणेश जी के अवतार को जानने का प्रयास करेंगें ।

वक्रतुण्डावतार


भगवान् इन्द्र के प्रमाद से एक असुर का प्रादुर्भाव हुआ । मद से उत्पन्न होने के कारण उसको मत्सरासुर कहा गया । गुरु शुक्राचार्य के निर्देश से उसने शिव की तपस्या की और समस्त लोकों में अपने आधिपत्य का प्रसार करना आरम्भ किया । जब मत्सर का आधिपत्य तीनों लोकों पर हो गया तो सभी देवता मनुष्यादि त्रस्त हो गए । तब दत्तात्रेय ऋषि द्वारा बताए गए गं बीज मन्त्र से सभी देवताओं ने भगवान् गणपति को प्रसन्न किया और मत्सर के विस्तार को समाप्त किया इसी प्रकार दम्भ नामक असुर का संहार भी वक्रतुण्ड के द्वारा ही किया गया था ।

वक्रतुण्डावतारश्च देहानां ब्रह्मधारकः ।
मत्सरासुरहन्ता स सिंहवाहनः स्मृतः ।।

भगवान् गणपति का यह वक्रतुण्ड अवतार ब्रह्म धारण करने वाली देह वाला है अर्थात् देह ब्रह्म का धारक है । भगवान् के इस अवतार को सिंह पर आरुढ अवस्था में स्मरण किया जाता है तथा इस अवतार के द्वारा ही मत्सरासुर का संहार हुआ ।

ये असुर केवल उस कालखण्ड में थे और अभी नहीं है, ऐसा नही समझना चाहिए । ये असुर आज के मनुष्य की प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं । आज हमारी जैसी भावनाए होती है और जो हमारे कर्म होते है वे आसुरी प्रवृत्तियों वाले होते जा रहे है । मत्सर का अर्थ है मद से उत्पन्न, ईर्ष्या, द्वेष और असूया । आज के मनुष्य मे इन प्रवृत्तियों का होना सामान्य है किन्तु ये प्रवृत्तियां हमारी बुद्धि को कलुषित करती हैं । हमारे आत्मबोध में बाधा बनती हैं । हमारे चिन्तन को दूषित करती है । आपसी सौहार्द का नाश करती है । इन सभी से रक्षा के लिए हमे इन उत्सवों के मैलिक अर्थ को अपनाकर आसुरी प्रवत्तियों से स्वयं को बचाना चाहिए ।

एकदन्तावतार –

प्राचीन काल में आयुर्वेद के ज्ञाता ऋषि च्यवन हुए हैं । उनके प्रमाद से एक असुर की उत्पत्ति हुई और वह मदासुर कहलाया । वह गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा लेकर शक्ति मंत्र ह्रीं की तपस्या के लिए गहन वन को चला गया । अनेकों वर्षों की तपस्या के उपरान्त शक्ति ने उसे वरदान दिया । वर प्राप्त कर अपने नगर को आकर उसने उस नगर को अपने अधीन कर लिया और उस नगर को वैभवशाली नगर बनाया । कालान्तर में उसने लालसा नामक कन्या से विवाह किया । और दैत्यगुरु ने उसे दैत्यराज का पद दिया । उसके तीन पुत्र हुए – विलासी, लोलुप और धनप्रिय ।
दैत्यराज मदासुर ने एक – एक करके तीनो लोक और फिर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने अधीन कर लिया । सृष्टि से धर्म का नाश होने लगा वेदादि मन्त्रोच्चार, यज्ञादि कर्म लुप्त हो गए । देवता वन – वन भटकने लगे तभी सनत्कुमार के द्वार भगवान् एकदन्त की उपासना के सुझाव प्राप्त हुआ । उन्हे भगवान् एकदन्त का रहस्य भी पता लगा कि भगवान् गणपति का यह नाम एकदन्त, दो शब्दों से मिलकर बना है – एक अर्थात् माया । यह माया देहरुपिणी और विलासवती है । दन्त अर्थात् सत्तास्वरुपात्मक (परमात्मा)। अतः गणेश जी माया के धारक और स्वयं सत्तावान् परमात्मा के स्वरुप हैं । इसीलिए वेदभाषानुसार विद्वज्जन परमात्मा स्वरुप को एकदन्त कहते हैं ।
ऋषि ने उनको गणपति के ध्यान को भी बताया –


एकदन्तं चतु्र्बाहुं गजवक्त्रं महोदरम् ।
सिद्धि-बुद्धि-समायुक्तं मूषकारुढमेव च ।।
नाभिशेषं पाशहस्तं परशुं कमलं शुभम् ।
अभयं दधतं चैव प्रसन्नवदनाम्बुजम् ।
भक्तेभ्यो वरदं नित्यमभक्तानां निषूदनम् ।।

इस प्रकार स्तुति करके देवताओं ने एकदन्त भगवान् को प्रसन्न किया और एकदन्त परमात्मास्वरुप ने मदासुर से इस सृष्टि की रक्षा की ।
यह मदासुर आज भी हमारे बीच पाया जाता है । मद शब्द का अर्थ है घमंड,गर्व और अहम् । जहाँ घमंड होता है वहाँ लालसा भी होती है । और दोनो के होने से विलासिता, लोलुपता और धनप्रियता भी आती ही है । हमें अपने घमंड और इसके साथ आने वाले दोषों से बचाने के लिए हमारी संस्कृति में इस उत्सव का विधान किया गया है । जिससे कि हम भगवान् गणपति की पूजा आराधना करके अपनी बु्द्धि को निर्मल कर सकें ।

एकदन्तावतारो वै देहिनां ब्रह्मधारकः ।
मदासुरस्य हन्ता स आखुवाहनगः स्मृतः ।।


भगवान् गणपति का एकदन्त नामक अवतार देह ब्रह्म को धारण करने वाला है । गणेश जी के इस स्वरुप का स्मरण मूषकवाहन के रुप में किया जाता है और भगवान् गणपति इस अवतार में मद नामक असुर के संहारक है ।

महोदरावतार –

महोदर अवतार का वर्णन तारकासुर वध के वृत्तान्त के साथ ही प्राप्त होता है । मोह की उत्पत्ती भगवान् शिव से हुई है । जब माँ पार्वती सुन्दर भिलनी के रुप में अनंगग की सहायता से भगवान् शंकर का ध्यान भंग करने का प्रयास करती है तब शिव के ध्यान से मोह पुरुष की उत्पत्ती होती है । इस प्रकरण में भगवान् शिव कामदेव को भस्म कर देते हैं और शरीर के न होने पर अनंग व्यकुल होकर गणेश जी से प्रार्थना करते है । भगवान् गणेश जी द्वारा उन्हे अव्यक्त शरीर प्रदान किया गया ।

यौवनं स्त्री च पुष्पाणि सुवासानि महामते ।
गानं मधुरसश्चैव मृदुलाण्डजशब्दकः ।।
उद्यानानि वसन्तश्च सुवासाश्चन्दनादयः ।
सङ्गो विषयसक्तानां नराणां गुह्यदर्शनम् ।।
वायुर्मृदुः सुवासश्च वस्त्राण्यपि नवानि वै ।
भूषणादिकमेवं ते देहा नाना कृता मया ।।
तैर्युतः शङ्करादींश्च जेष्यति त्वं पुरा तथा ।
मनोभूः स्मृति भूरेवं त्वन्नामानि भवन्तु वै ।।

इसी बीच मोह पुरुष जो भगवान् शिव के द्वारा प्रकट हुआ था । भगवान् भास्कर की कृपा से अनन्त प्रबलता को प्राप्त कर चुका था तथा तीनो लोकों पर अपना आधिपत्य कर रहा था । उसके आधिपत्य के कारण देव, गन्धर्व, ऋषि आदि सभी त्रस्त हो गए थे । इन सभी की इस अवस्था को देखकर भगवान् भास्कर ने ही महोदर स्तुति करने का सुझाव दिया । समस्त देवताओं की प्रार्थना के फलस्वरुप भगवान् गणेश महोदर रुप को प्राप्त हुए और मोहासुर के मोह और आतंक का अन्त किया । कालान्तर में महोदर भगवान् के द्वारा दुर्बुद्धि और ज्ञानारि का भी संहार किया गया ।
वस्तुतः मोहासुर मनुष्य की भावनात्मक आसक्ति है जो कि हमारी बुद्धि को दूषित कर देती है । मोह के वशीभूत होकर मनुष्य अनेक अनैतिक कार्यों में लिप्त हो जाता है । मोह के कारण दुर्बुद्धि जागृत होती है और ज्ञान का नाश हो जाता है । भगवान् गणेश का यह उत्सव हमें अपनी बुद्धि और ज्ञान को सन्मार्ग पर लगाने के लिए प्रेरित करता है ।

महोदर इति ख्यातो ज्ञानब्रह्मप्रकाशकः ।
मोहासुरस्य शत्रुर्वै आखुवाहनगः स्मृतः ।।

महोदर नाम से विख्यात श्री गणेश जी का यह अवतार ज्ञानरुपी ब्रह्म को प्रकाशित करने वाला है । ज्ञान का प्रकाशक होने के कारण यह अवतार मोह नामक असुर का शत्रु है जिसे मूषकवाहन के रुप मे स्मरण किया जाता है ।

गजाननावतार –

एक बार गन्धर्वराज कुबेर भगवान् शंकर के दर्शन के लिए कैलाश पर गए । वहाँ भगवान् शिव जगज्जननी माँ पार्वती के साथ विराजमान थे । माता पार्वती की आग्नेयी दृष्टि से कुबेर की लुब्ध दृष्टि के कारण उसके अन्दर से लोभ नामक भयंकर असुर की उत्पत्ती हुई । कुछ समय पश्चात उस असुर ने शिव की आराधना से वरदान प्राप्त कर तीनो लोकों को अपने अधीन कर लिया । लोभ के आतन्क से सभी प्राणी दुःख का अनुभव कर रहे थे । तब ऋषि रैम्य ने भगवान् गजानन की उपासना पद्धति का उपदेश दिया और बताया कि इस असुर से भगवान् गजानन ही हमारी रक्षा कर सकते हैं । ऋषि रैम्य से उपदेश प्राप्त कर सभी भगवान् गजानन की उपासना मे लग गए । भगवान् गजानन के प्रभाव और उनकी शक्ति को समझ कर लोभासुर ने भगवान् की शरणागति प्राप्त की और सन्मार्ग का अनुसरण किया । इस प्रकार गणेश जी के गजानन स्वरुप ने लोभ से संसार को मुक्त किया ।
लोभ भी हमारे मन के भाव का ही एक प्रतीक है । लोभ का अर्थ है लालच । इस कलिकाल में मनुष्य बहुत अधिक लोभी हो गया है । लोभ के वशीभूत होकर नीतियों का उल्लंघन बडे ही सरल मार्ग से कर रहा है । इस उत्सव के द्वारा हमारे शास्त्र हमें लोभ के त्याग की प्रेरणा देते हैं ।

गजाननः स विज्ञेयः सांख्येभ्यः सिद्धिदायकः ।
लोभासुरप्रहर्ता वै आखुगश्च प्रकीर्तितः ।।

गणपति जी के जिस अवतार को गजानन कहा जाता है वह सांख्यब्रह्म धारक है अतः सांख्य शास्त्र के अध्येताओ तथा विद्वज्जनो के लिए सिद्धि देने वाला हैं । भगवान् गणपति के इस अवतार ने लोभासुर का नाश किया था और इस अवतार को भी मूषकवाहन के नाम से ही स्मरण किया जाता है ।

लम्बोदरावतार –

भगवान् विष्णु के द्वारा मेहिनी रुप लेने पर शिव उन पर मोहित हो गए थे तथा जब सत्य ज्ञात हुआ तो उनके तेज से क्रोध की उत्पत्ती हुई । क्रोध पताल में जाकर रहने लगा । वहाँ दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने शम्बरासुर की कन्या प्रीति के साथ उसका विवाह करवा दिया । क्रोधासुर अनुपम लावण्यवती प्रीति से विवाहकर बहुत आनन्दित हुआ । कुछ समय पश्चात् पुरुषार्थ सिद्धि हेतु सूर्य की उपासना की और वर प्राप्त किया । इसके उपरान्त क्रोधासुर को दो पुत्रों हर्ष तथा शोक की प्राप्ति हुई ।
वरदान प्राप्त कर उसने समस्त संसार पर अपनी विजय पताका फहराई । क्रोध के प्रभाव से ग्रसित संसार को देखकर देवताओं ने लम्बोदर की उपासना की और उनसे क्रोध को नष्ट करने के लिए प्रार्थना करने लगे । भगवान् लम्बोदर ने सभी देवताओं को अभय प्रदान किया और लम्बोदर भगवान् ने अपने परमात्मस्वरुप का ज्ञान दिया । लम्बोदर के गूढ रहस्य को जान कर क्रोध शान्त हो गया और लम्बोदर की शरणागति को प्राप्त हुआ ।
भगवान् गणेश हमारे मन और मस्तिष्क से भी क्रोध नामक असुर का नाश करें और हमें निर्मल बुद्धि प्रदान करें । क्रोध की उत्पत्ती कारण प्रीति, हर्ष तथा शोक इनसे भी हमारी रक्षा हो इसी प्रार्थना हेतु गणपति उत्सव का आयोजन सम्पूर्ण भारत वर्ष में किया जाता है ।

लम्बोदरावतारो वै क्रोधासुरनिवर्हणः ।
शक्तिब्रह्माखुगः सद् तद्धारक उच्यते ।।

भगवान् गणेश के लम्बोदर अवतार के माध्यम से क्रोध नामक असुर का अन्त किया । इस अवतार में प्रभु ने ब्रह्म की सत्य स्वरुपा शक्ति को धारण किया है तथा मूषक को वाहन के रुप में स्वीकार किया है ।

विकटावतार –

जलन्धर नामक असुर को अपनी पत्नी वृन्दा के व्रत से असीम शक्ति प्राप्त होती थी । उस असुर ने सभी देवताओं तथा प्राणियों को त्रस्त किया हुआ था । उसको परास्त करने के लिए विष्णु ने वृन्दा के तप को भंग करने का प्रयास किया जिसके फलस्वरुप उनके तेज से काम नामक अदृश्य असुर की उत्पत्ती हुई ।
कामासुर शुक्राचार्य के मार्गदर्शन से शिव की तपस्य करने लगा और त्रैलोक्यविजय का वर प्राप्त किया । वर प्राप्ति के बाद दैत्यगुरु ने महिषासुर की पुत्री तृष्णा से कामासुर का विवाह करवा दिया । विवाह के बाद कामासुर अपने आमात्य रावण, शम्बर, बलि, महर्षि और दुर्मद के साथ त्रैलोक्य विजय के लिए निकल गया ।
कामासुर से दुःखी होकर देवता अरण्य मे रहने लगे तभी ऋषि मुद्गल के उपदेश से देवताओं ने गणेश जी के विकटावतार की उपासना की और उनसे कामासुर के अन्त की प्रार्थना की ।
भगवान् गणेश के विकटावतार ने कामासुर से युद्ध किया । युद्ध में अपनी पराजय जान कर कामासुर ने भगवान् गणेश से क्षमा याचना की । भगवान् गणेश ने क्षमा भाव से उसे अपनी शरणागति प्रदान की और संसार को उसके आतंक से मुक्त किया ।
हमारे जीवन में भी कामासुर का आतंक बहुत अधिक होता है । काम का अर्थ है कामनाएँ, जो कि कभी रुकती ही नहीं । अपनी कामनाओं को संयमित करने की ईच्छा शक्ति प्रदान करने के लिए हम भगवान् गणपति के विकटावतार की आराधना करते हैं ।

विकटोनाम विख्यातः कामासुरविदारकः ।
मयूरवाहनश्चायं सौरब्रह्मधरः स्मृतः ।।

भगवान् गणेश जी ने अपने विकट नामक अवतार के माध्यम से कामासुर का अन्त किया । भगवान् का यह रुप मयूर वाहन वाला तथा सौरब्रह्म को धारण करने वाला है । इसी रुप में इनका विकटावतार स्मरण किया जाता है ।

विघ्नराजावतार –

गिरिराजनन्दिनी जगज्जननी माँ पार्वती विवाह के उपरान्त सखियों के साथ उपवन में वार्तालाप कर रहीं थी । तभी किसी बात पर उनके हास्य से पर्वताकार मनोरम पुरुष की उत्पत्ती हुई । माँ गिरिजा को ज्ञात हुआ कि उनके हास्य से इसकी उत्पत्ती हुई है तो मन-पारायण होने के कारण माता ने उसका नाम मम अथवा ममतारख दिया । माँ शैलपुत्री ने उसे षडाक्षर मन्त्र के साथ गणेश्वर की शरण में जाने को कहा ।

माता शैलपुत्री के आदेश से वह गणेश्वर की तपस्या के लिए वन में आता है जहाँ उसकी शम्बर नामक असुर से भेंट होती है और शम्बरासुर का शिष्यत्व प्राप्त कर अनेकों सिद्धियां प्राप्त कर लेता है । तदुपरान्त शम्बर उसे गणेश्वर को प्रसन्न कर अमरत्व और ब्रह्माण्ड विजय प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है और ममतासुर तपस्या जुट जाता है । तपस्या से मनोवांछित फल की प्राप्ति के बाद शम्बर की पुत्री मोहिनी से उसका विवाह होता है और धर्म तथा अधर्म दो पुत्रों की प्राप्ति होती है ।

शम्बर के द्वारा प्रेरित किये जाने पर वह ब्रह्माण्ड पर विजय करने निकल जाता है । जिससे सभी प्राणीयों में असन्तुलन उत्पन्न होता है । तीनो लोकों की सत्ता अस्त व्यस्त हो जाती है । सभी उस ममतासुर के अत्याचारों से त्रस्त होते हैं तभी भगवान् विष्णु सभा देवताओं को विघ्नराज की उपासना का परामर्श देते है । सभी देवता उनके परामर्श का अनुसरण करते है । भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी को मध्याह्न काल में भगवान् विघ्नराज दर्शन देते हैं और देवताओं को ममतासुर से रक्षा का आश्वासन देते है ।
ममतासुर अपने पुत्रों और सेना के साथ विघ्नराज से युद्ध के लिए उपस्थित होता है । विघ्नराज से परास्त होकर वह उनकी शरणप्राप्ति की याचना करता है । विघ्नराज की दयादृष्टि से उसे क्षमादान प्राप्त होता है और वह विघ्नराज के भक्तों की सेवा का कार्य करने के लिए समर्पित होता है ।
इस प्रकार ममत्व का भाव हमारे मन में असुर के रुप में विद्यमान रहता है । ममत्व का अर्थ है मेरा । किसी भी वस्तु आदि के प्रति बहुत अधिक आसक्ति होना ममत्व को पैदा करने का कारण बनता है । गणेश जी के इस स्वरुप से हम अपने ममत्व भाव का त्याग करने के लिए भगवान् विघ्नराज से प्रार्थना करते हैं ।

विघ्नराजावतारश्च शेषवाहन उच्यते ।
ममतासुरहन्ता स विष्णुब्रह्मेति वाचकः ।।

भगवान् गणपति के अनंत रुपों में विघ्नराज नामक अवतार, शेषवाहन के नाम से भी जाना जाता है । इस अवतार मे भगवान् गणपति ने विष्णु और ब्रह्मा के तत्त्वों को धारण कर मम अथवा ममतासुर का अन्त किया है ।

धूम्रवर्णावतार –

परमपिता चतुरानन ब्रह्मा के द्वारा जब सूर्य को कर्मराज्य का अधीश्वर बना दिया गया तो उन्हें विचार आया कि त्रिदेव सहित सभी देव दानव मनुष्यादि कर्म के अधीन है और मैं कर्म की अधीश्वर हूँ अर्थात् सभी मेरे अधीन हैं । इस प्रकार अहंकार पूर्वक विचार करते हुए उन्हें छींक आ गई जिससे एक अत्यन्त सुन्दर पुरुष प्रकट हुआ । उसको कहीं भी गति प्राप्त नहीं हुई अतः वह शुक्राचार्य की सेवा मे चला गया । शुक्राचार्य ने उसे गणेश जी के षोडशाक्षरी मन्त्र देकर गनानन की उपासना करने का आदेश दिया ।
अहमासुर ने कई वर्षों तक श्रीगणपति की तपस्या की । तपस्या से प्रसन्न होकर गणपति ने उसे मनोवांछित वरदान प्रदान किया । तदुपरान्त उसे दैत्यराज का पद प्राप्त हुआ और प्रमदासुर की पुत्री से उसका विवाह हुआ । जिसके फलस्वरुप गर्व और श्रेष्ठ नामक पुत्र उत्पन्न हुए ।
कुछ समय पश्चात् उसने ब्रह्माण्ड पर विजय प्राप्त की और निरंकुश शासन करने लगा । सभी ऋषि देवतादि अरण्यों गहन गुफाओं में रहकर कालयापन करने लगे । अधर्मधारक नामक असुर ने अहमासुर को सूचित किया कि देवतादि अरण्य व गुफाओं में रहकर हमारे विनाश की प्रार्थना व यज्ञादि करते हैं । इस प्रकार अधर्मधारक से प्रेरित होकर यज्ञादि कर्म खण्डित करना आरम्भ कर दिये । वनों और पर्वतों को नष्ट करने लगा । समस्त देवालयों से देव प्रतिमाएं हटवाकर अहंतासुर की प्रतिमाएं रखवाई गई –


सर्वत्राहं प्रतिमाश्च स्थापिता भूमिमण्डले ।
पूजका राक्षसास्तत्र कृतास्तेन सुपापिना ।।

इस प्रकरा अहंतासुर की उपासना प्रचलित हो गई । सभी देवता विचलित हो उठे और करुणामूर्ति गजानन को प्रसन्न करने के लिए एकाक्षरी मन्त्र का आश्रय लिया । देवताओं के स्तवन से प्रसन्न होकर धूम्रवर्ण गणेश ने उन्हे रक्षा आश्वासन दिया ।
रात्रि मे धूम्रवर्ण गणपति ने राक्षसराज को स्वप्न में दर्शन देकर समझाने का प्रयास किया किन्तु वह नहीं माना । तदुपरान्त युद्ध में धूम्रवर्ण गणपति के पाश अस्त्र ने समस्त आसुरी सेना का नाश कर दिया और अहंतासुर ने क्षमा याचना की ।
इस प्रकार हमे भी अभिमान या अहंकार करने से बचना चाहिए । अहंकार हमारे सभी पुण्यकर्मो को नष्ट कर देता है । अहंकार के वशीभूत होकर मनुष्य नैतिक व्यवहार नहीं कर पाता । गणपति भगवान् का धूम्रवर्ण स्वरुप हमें अहंकार त्याग कर निर्मल बुद्धि प्राप्त करने की प्रेरणा देता है ।

धूम्रवर्णावतारश्चाभिमानासुरनाशकः ।
आखुवाहनश्चासौ शिवात्मा तु स उच्यते ।।

भगवान् गणेश जी के धूम्रवर्ण अवतार ने अभिमान नामक राक्षस का नाश किया था । इस अवतार में गणेश जी शिवस्वरुप और मूषक वाहन के रुप में स्मरण किये जाते हैं ।

इस प्रकार भगवान् गणपति के मुख्य आठ स्वरुपों का वर्णन गणेश पुराण में प्राप्त होता है । इन स्वरुपों के माध्यम से हमारे शास्त्र हमें जीवन में किसी ईर्ष्या, द्वेषादि विकार के बिना, निर्मलता और सरलता से ईश्वर भक्ति के लिए प्रेरित करते हैं ।

भविष्यति च सौख्यस्य पठते शृण्वते पदम् ।
भुक्तिमुक्तिप्रदं चैव पुत्रपौत्रादिकं तथा ।।

अर्थात् जो भक्त परम भक्तिभाव से इस पावन गणेश पुराण का श्रवण करता है वह सदैव ऐश्वर्य से सम्पन्न होकर समस्त भोगों को भोगता है और अन्त में मुक्ति को प्राप्त करता है ।


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