Sanskrit Shlokas on Anger

Sanskrit Shlokas on Anger with Meaning in Hindi

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Sanskrit Shlokas on Anger

क्रोधो सर्वार्थनाशको
क्रोध मनुष्य के सभी अर्जित कर्मों का नाश कर देता है ।

वाच्यावाच्यं प्रकुपितो न विजानाति कर्हिचित्।
नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नवाच्यं विद्यते क्वचित्॥

– श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण 5.55.5

मनुष्य जब क्रोध में होता है तो उसको क्या बोलना चाहिए और क्या नहीं बोलना चाहिए इसका विवेक नहीं रहता । क्रुद्ध मनुष्य उस अवस्था में कुछ भी बोल सकता है और कुछ भी अनर्गल प्रलाप कर सकता है। उस समय उसके लिए कोई भी कार्य, अकार्य नहीं है और कोई भी वाक्य अवाच्य नहीं है।

क्रोधमूलो मनस्तापः क्रोधः संसारबन्धनम्।
धर्मक्षयकरः क्रोधः तस्मात्क्रोधं परित्यज॥

Sanskrit Shlokas on Anger

 मनुष्य के जीवन में मन के समस्त दुःखों का कारण क्रोध ही है । यही क्रोध संसार के बंधन का कारण भी बनता हैं । क्रोध के द्वारा ही मनुष्य धर्म का क्षय करता है । इसीलिए मनुष्यों को क्रोध का परित्याग करना चाहिए । जो मनुष्य क्रोध का त्याग नहीं कर सकते वे वयोवृद्ध हो सकते है किन्तु ज्ञानवृद्ध नहीं होते हैं । अल्पमति ही रहते हैं ।

ध्यायतो विषयान् पुंस: संगस्तेषूपजायते ।
संगात् संजायते काम: कामात् क्रोधोऽभिजायते ।।

मनुष्य अपने जीवन में अनेको विषयों का ध्यान करता है और उन पर आसक्त होता है यही आसक्ति उसमें कामनाओं को जन्म देती है । कामनाओ के कारण क्रोध की उत्पत्ति होती है ।

अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी
दरिद्रता च स्वजनेषु वैरं ।
नीचप्रसङ्ग: कुलहीनसेवा
चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम् ॥

अत्यधिक क्रोध, कट्वी वाणी, निर्धनता, सम्बन्धियो से वैर (शत्रुता), निम्न जनों की संगति तथा कुलहीन की सेवा करना । जिस मनुष्य में उक्त समस्त लक्षण प्राप्त होते है इसका अर्थ है कि वह नरक में वास कर रहा है । उस मनुष्य के लिए यह सुन्दर वसुधा नरक के समान है ।


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