40 Sanskrit Shlokas with Meanings in Hindi संस्कृत श्लोक अर्थ सहित हिन्दी मे
Sanskrit Shlokas on Dharma
सुखार्थं सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः ।
सुखं नास्ति विना धर्मं तस्मात् धर्मपरो भव ॥ अष्टांग. सूत्र. अ. – 2/20
संसार के समस्त प्राणियों की प्रवृत्ति सुखार्थ अर्थात् सुख के लिए ही होती है । किन्तु धर्मसंगत आचरण के बिना सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । अत: सदैव धर्म परायण होकर ही रहना चाहिए । तथा सदैव धर्म के अनुरुप आचरण करना चाहिए ।
अस्थिरं जीवितं लोके ह्यस्थिरे धनयौवने ।
अस्थिराः पुत्रदाराश्च धर्मः कीर्तिर्द्वयं स्थिरम् ॥
जीवन अस्थिर है अर्थात् शाश्वत नहीं है । इस संसार में धन और यौवन भी अस्थिर है । कुछ समय के लिए ही प्राप्त होता है । हमारे सम्बन्धि जन जैसे कि पुत्र और पत्नी आदि भी अस्थिर है ये भी हमेशा साथ में नहीं रहेंगे । अगर कुछ स्थिर है तो मात्र दो ही वस्तुएं हैं जो स्थिर है – कीर्ति और धर्म ।
स जीवति गुणा यस्य धर्मो यस्य जीवति
गुणधर्मविहीनो यो निष्फलं तस्य जीवितम् ॥
इस मर्त्य लोक में वही जीता है जो गुणवान् है और धर्मवान् है । क्योंकि मृत्यु के उपरान्त उसके गुण और उसके धर्म का ही लोग अनुसरण करते है उनके द्वारा ही वह सदैव जीवित रहता है । जो गुण और धर्म से रहित है उसका जीवन निष्फल है ।
प्रामाण्यबुद्धिर्वेदेषु साधनानामनेकता ।
उपास्यानामनियमः एतद् धर्मस्य लक्षणम् ॥
वेदों में प्रामाण्यबुद्धि अर्थात् वेदाध्ययन में प्रमाणात्मिका बुद्धि से काम लेना, साधना के प्रकारों में उसके स्वरुपों में अनेकरुपता का होना अर्थात् साधने के विविध आयामों को जानना तथा उपास्यरुप सम्बन्ध में नियमन का न होना अर्थात् किसी बाध्य न होना ये ही धर्म के लक्षण कहे गए हैं ।
Sanskrit Shlokas with Meanings in Hindi
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ॥ – मनुस्मृति
धारणा शक्ति अथवा धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय ( चौर कर्म न करना) शौच (पवित्रता), इन्द्रियनिग्रह (इन्द्रियों पर संयम) बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध (क्रोध न करना) ये दस लक्षण धर्म के लिए कहे गए हैं । जो मनुष्य इन लक्षणों को जीवन में स्वीकारता है वह धर्म का पालन करने वाला कहा जाता है ।
अथाहिंसा क्षमा सत्यं ह्रीश्रद्धेन्द्रिय संयमाः ।
दानमिज्या तपो ध्यानं दशकं धर्म साधनम् ॥
अहिंसा का भाव, क्षमा का भाव, सत्यवचन, लज्जा का भाव, श्रद्धा का भाव, इंद्रियसंयम अर्थात् इन्द्रियों पर नियन्त्रण, दान का भाव, यज्ञकर्म, तपकर्म और ध्यान – ये दस प्रकार के धर्म के साधन बतलाए है ।
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥
यद्यदात्मनि चेच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ -महाभारत, शान्तिपर्व
धर्म का सर्वस्व अर्थात् धर्म के बारे में सब कुछ सुनो और सुनकर उसे धारण भी करों जीवन में तथा व्यवहार में प्रयोग करो । जो स्वयं के लिए प्रतिकूल हो जिस अवस्था या स्थिति में हम स्वयं की कल्पना नहीं कर सकते वै सा हमें दुसरों के बारे में भी नहीं सोचना चाहिए । अर्थात् जो हमारे लिए अनुचित हो उसे दुसरे के लिए भी अनुचित ही समझना चाहिए । तथा हम स्वयं के लिए जैसी इच्छा रखते है वैसी ही मनोकामना दुसरों के लिए भी होनी चाहिए । हमें जिससे प्रसन्नता होती है दुसरों के लिए भी वह प्रसन्नता का साधन हो सकती है । ऐसा विचार करना चाहिए । यही धर्म का सार है ।
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। – वैशेषिक सूत्र
जिसके द्वारा वर्तमान काल में अभ्युदय अर्थात् उन्नति और आने वाले भावी काल में निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की सिद्धि अथवा प्राप्ति हो वही धर्म है । दुसरे अर्थ में यहाँ भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनो ही प्रकार की उन्नति धर्म के माध्यम से बतलाई गई है ।
धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥ – महाभारत
जिसको धारण किया जाता है वही धर्म होता है । धर्म शब्द संस्कृतभाषा की धृ धातु (क्रिया) से बना है जिसका अर्थ होता है धारण करना । कोशादि ग्रन्थों में भी धार्यते इति धर्म ऐसी व्याख्याएं प्राप्त होती है । इसी का संकेत यहाँ भी प्राप्त हो रहा है । इसीलिए कहा गया कि धारण करने के कारण यह धर्म कहा गया है और धर्म से ही प्रजा को भी धारण अर्थात् प्राप्त किया जा सकता है । तात्पर्य यह है कि हम अगर धर्म परायण होंगे तो प्रजा भी धर्म परायण होगी और यह निश्चित है कि जिसके द्वारा सभी को धारण किया जाता है वही धर्म है अर्थात् धर्म ऐसी वस्तु है जिसको समस्त संसार धारण कर सकता है अपना सकता है ।
ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चित् शृणोति माम् ॥
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते ॥ – महाभारत
स्वयं महर्षि वेदव्यास यहाँ कह रहे है कि मैं अपनी दोनों भुजाएं उठा कर लोगों को समझा रहा हूँ कि धर्म से ही अर्थ और काम अर्थात् कामनाओं की प्राप्ति हो सकती है तो उस धर्म की ही सेवा करनी चाहिए उसी का मार्ग अपनाना चाहिए लेकिन कोई मेरी बात सुन ही नही रहा है ।
न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ॥ – महाभारत
कामनाओं की प्रप्ति के लिए, भय को दूर करने के लिए, लोभ के लिए और ना हि प्राणों के लिए भी धर्म का त्याग करना चाहिए अर्थात् प्राण देकर भी धर्म को ही अपनाना चाहिए । क्योंकि धर्म नित्य है शाश्वत है सुख और दुख नित्य नहीं है ये अनित्य हैं । उसी प्रकार जीवात्मा नित्य होती है उसके सभी हेतु या सम्बन्ध अनित्य होते है ।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥
जिसके द्वारा अपने ही धर्म का नाश कर दिया गया है ऐसे प्राणी का नाश धर्म के द्वारा हो ही जाता है और जो धर्म की रक्षा करता है धर्म के द्वारा उसकी भी सदैव रक्षा होती रहती है । इसीलिए कभी भी धर्म की हानी नही करनी चाहिए कभी धर्म का नाश नहीं करना चाहिए । क्योकि हनन किया गया धर्म कहीं हमारा ही नाश न कर दे ।
धर्मः कल्पतरुः मणिः विषहरः रत्नं च चिन्तामणिः
धर्मः कामदुधा सदा सुखकरी संजीवनी चौषधीः ।
धर्मः कामघटः च कल्पलतिका विद्याकलानां खनिः
प्रेम्णैनं परमेण पालय ह्रदा नो चेद् वृथा जीवनम् ॥
धर्म कामनाओं की पूर्ति करने वाला कल्पवृक्ष है, विष का हरण करने वाली मणि है, चिंतामणि के समान रत्न है । धर्म कामधेनु के समान सर्वदा सुख और आनन्द देने वाला है, धर्म साक्षात् संजीवनी औषधि के समान है । धर्म कामघट के समान है जो सभी की मनोकामनाएं पूर्ण करनें में समर्थ है, धर्म कल्पलता है, धर्म विद्या और कला का संग्रह है जिसे खजाना कहना अतिशयोक्ति नहीं है । इसीलिए, हे मनुष्य तू उस धर्म का प्रेमपूर्वक और आनंद के साथ पालन कर, अन्यथा यह जीवन व्यर्थ ही है । इसका कोई उपयोग नहीं है ।
अध्रुवेण शरीरेण प्रतिक्षण विनाशिना ।
ध्रुवं यो नार्जयेत् धर्मं स शोच्यः मूढचेतनः ॥
इस अनिश्चित नश्वर शरीर के द्वारा जो कि प्रतिक्षण विनाश को प्राप्त हो रहा है, जो मनुष्य शाश्वत और नित्य धर्म को अर्जित नहीं करता वह मूर्ख है और शोक करने योग्य है ।
पूर्वे वयसि तत्कुर्याद्येन वृद्धः सुखं वसेत् ।
यावज्जीवेन तत्कुर्याद्येनामुत्रसुखं वसेत् ॥
आरम्भिक वय में अर्थात् यौवन काल में ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे कि वृद्धावस्था में कष्ट न हों और जब तक जीवन है उसे इस प्रकार जीएं कि परलोक में कष्ट ना हो अर्थात् पाप कर्म न करें सदैव धर्म के मार्ग पर चलें ।
उत्थायोत्थाय बोद्धव्यं किमद्य सुकृतं कृतम् ।
आयुषः खण्डमादाय रविरस्तं गमिष्यति ॥
प्रतिदिन प्रातः उठकर जान लेना चाहिए कि आज कौनसा सुकर्म किया जाना है । क्योंकि सूर्य हर दिन आयु का एक खण्ड लेकर अस्त हो जाता है । अर्थात् प्रतिदिन हमारी आयु कम होती जाती है ।
अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत् ।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥
स्वयं को अजर और अमर समझ कर विद्या और अर्थ का चिन्तन कर सकते है अर्थात् इन कार्यों में विलम्ब हुआ तो बहुत बडी हानी नही है किन्तु मृत्यु ने हमें बालों से पकडा हुआ है ऐसा समझ कर धर्म का पालन करना चाहिए । अर्थात् धर्म पालन करने में किसी भी प्रकार का दोष नही आना चाहिए ।
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वतः ।
नित्य संनिहितो मृत्युः कर्तव्यो धर्मसङ्ग्रहः ॥
संसार में सभी प्राणी शरीर अनित्य हैं अर्थात् उनका विनाश निश्चित है । इसी प्रकार धन-वैभव भी नित्य शाश्वत नहीं है उसका भी यथा समय नाश हो ही जाएगा । किन्तु मृत्यु निश्चित आने वाली ही है उसको रोक पाना सम्भव नही है अतः सर्वदा धर्म का सङ्ग्रह करना चाहिए । कभी भी अधर्म के कार्य नहीं करने चाहिए ।
सकला-अपि कला कलावतां विकला धर्मकलां विना खलु ।
सकले नयने वृथा यथा तनुभाजां कनीनिकां विना ॥
संसार के समस्त कलावन्त लोगों की कलाएं धर्म की कला के बिना उसी प्रकार विकला हैं, व्यर्थ हैं जिस प्रकार मनुष्य की आंख कनिनिका के बिना व्यर्थ है क्योंकि कोइ भी प्राणी सम्पूर्ण आंख से नही देखता कनिनिका से दिखता है ।
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ ।
विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ॥
मनुष्य के मृत शरीर को लकडी के टुकडे के समान छोड दिया जाता है, और वैसे ही जीवन भर साथ रहने वाले संबंधी भी मुँह फेर लेते हैं विमुख हो जाते हैं । केवल धर्म ही मनुष्य के पीछे उसका सहारा बनकर जाता है ।

आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
संसार के विविध प्राणियों जैसे पशु, पक्षी और मनुष्यादि में जीवनावश्यक मूलभूत कार्य समान ही है । जिसमें आहार (भोजन), निद्रा,भय और मैथुन जैसी क्रियाए हैं । इनके द्वारा मनुष्य और अन्य जीवों में अन्तर नहीं किया जा सकता । किन्तु मनुष्य में एक तत्त्व विशेष होता है जो अन्य प्राणियों में नहीं पाया जाता वह है धर्म । इसीलिए धर्म से हीन मनुष्य को पशु के समान माना गया है ।
धर्मस्य फलमिच्छन्ति धर्मं नेच्छन्ति मानवाः ।
फलं पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति सादराः ॥
इस संसार में मनुष्य अपने जीवन काल में धर्म के फल की इच्छा अवश्य करते है लेकिन धर्म संगत कार्यों को करना नहीं चाहते है । पाप कर्मों के फल की इच्छा नहीं करते हैं लेकिन पाप कर्म करने में लेश मात्र भी विराम नहीं लेते । निरन्तर पाप कर्म करते रहते हैं ।
धर्मो मातेव पुष्णाति धर्मः पाति पितेव च ।
धर्मः सखेव प्रीणाति धर्मः स्निह्यति बन्धुवत् ॥
धर्म हमें माता के समान पुष्ट करता है । अर्थात् जिस प्रकार माता हमें भोजन तथा संस्कारों के माध्यम से पुष्टता प्रदान करती है उसी प्रकार धर्म हमें मनोबल देकर पुष्ट करता है । धर्म पिता के समान हमें सभी कष्टों से बचाता है तथा असमंजस की अवस्था में विवेक पूर्ण निर्णय लेकर रक्षण प्रदान करता है । धर्म हमें सखा अथवा मित्र के समान प्रेम करता है । हम अगर सदैव धर्म का साथ देते है तो धर्म भी सदैव हमारे साथ ही रहता है। तथा धर्म बन्धुओं सम्बन्धियों के समान स्नेह भी प्रदान करता है ।
अन्यस्थाने कृतं पापं धर्मस्थाने विमुच्यते ।
धर्मस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ॥
किसी भी अवस्था में किया हुआ पाप कर्म धर्मस्थान (जहाँ धर्म का आचरण किया जाता है) में आकर अपने बुरे फल को त्याग देता है अर्थात् अन्य स्थानों पर किये हुए पाप कर्म के फल की धर्म स्थान में मुक्ति हो जाती है किन्तु धर्मस्थान में अगर पाप कर्म किया गया तो वह वज्रलेप के समान हो जाता है जिसकी मुक्ति नहीं हो सकती ।
न क्लेशेन विना द्रव्यं विना द्रव्येण न क्रिया ।
क्रियाहीने न धर्मः स्यात् धर्महीने कुतः सुखम् ॥
क्लेश के बिना द्रव्य अर्थात् धन की प्राप्ति नहीं होती है तथा धन के बिना कोई भी कार्य नहीं हो पाते हैं । कार्य अर्थात् कर्म के बिना धर्म परायण होना सम्भव नहीं है क्योंकि धर्म के आचरण के लिए क्रियाशीलता आवश्यक है । और धर्म के न होने पर सुखप्राप्ति नहीं हो सकती है ।
वर्धत्यधर्मेण नरस्ततो भद्राणि पश्यति।
ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति॥ – महाभारत, आरण्यक पर्व 3/92
मनुष्य अधर्म का पालन करके वृद्धि को प्राप्त करता है उन्नति को प्राप्त करता है इसके उपरान्त ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा और सम्पदा को प्राप्त करता है । तथा वह अपने शत्रुओं पर भी विजय को प्राप्त कर लेता है लेकिन ये सब अधर्म से प्राप्त किया गया है इसलिए यह वैभव स्थिर नहीं हो पाता अन्ततः ये सब समूल नष्ट हो ही जाता है ।
कथमुत्पद्यते धर्मः कथं धर्मो विवर्धते ।
कथं च स्थाप्यते धर्मः कथं धर्मो विनश्यति ॥
सत्येनोत्पद्यते धर्मो दयादानेन वर्धते ।
क्षमाया स्थाप्यते धर्मो क्रोधलोभाद्विनश्यति ॥ – महाभारत
धर्म कैसे उत्पन्न होता है कहाँ से उत्पन्न होता है किस प्रकार उसकी उत्पत्ति होती है, और वह बढता कैसे है उसका विकास कैसे होता है ? धर्म की स्थापना किसके द्वारा होती है और उसका विनाश कैसे हो जाता है ?
धर्म सत्य से उत्पन्न होता है सत्य का मार्ग धर्म का मार्ग है । इसी मार्ग से धर्म को उत्पन्न किया जा सकतै है । धर्म की उत्पत्ति के बाद दाय और दया से इसकी वृद्धि की जाती है । धर्मवृद्धि के उपरान्त क्षमा के द्वारा इसकी स्थापना कर सकते हैं । और क्रोध व लोभ के द्वारा इसका विनाश होता है ।
अभावो वा प्रभावो वा यत्र नास्त्यर्थकामयोः।
समाजेष्वात्मरूपत्वं धर्मचक्र प्रवर्त्तनम्॥
समाज में जन समुदाय के मनोभावों में जब अर्थ और काम जिसे हम धन और कामना कहते है इनका प्रभाव और अभाव दोनों ही न हो तथा समाज में आत्मरुपत्व हो आत्मीयता हो प्रेम और स्नेह हो । जब धन और कामनाए आत्मीयता में बाधा न बने यही धर्मचक्र का प्रवर्तन है तथा धर्म का आचरण है ।
तर्कविहीनो वैद्यः लक्षण हीनश्च पण्डितो लोके ।
भावविहीनो धर्मो नूनं हस्यन्ते त्रीण्यपि ॥
जिस वैद्य के तार्किक शक्ति न हो, जिस पण्डित के पास लक्षण शक्ति का अभाव हो तथा जो धर्म भावों से रहित हो ऐसी अवस्था में ये तीनों ही हंसी के पात्र बनते हैं ।
अविज्ञाय नरो धर्मं दुःखमायाति याति च ।
मनुष्य जन्म साफल्यं केवलं धर्मसाधनम् ॥
मनुष्य धर्म को न जानकर दुःख के आवरण में आता – जाता रहता है अर्थात् जो मनुष्य धर्म को नही जानता है उसके जीवन में दुःखों का आना – जाना लगा रहता है । मनुष्य का जीवन तभी सफल माना जाता है जब वह धर्म को साध लेता है, प्राप्त करके आत्मसात कर लेता है ।
बाल्यादपि चरेद्धर्ममनित्यं खलु जीवितम् ।
फलानामिव पक्कानां शश्वत् पतनतो भयम् ॥
बाल्यकाल से ही धर्म का आचरण करना चाहिए सदैव धर्म के प्रति जागरुक रहना चाहिए क्योंकि जीवन अनित्य है । जैसे फल पक जाने पर अवश्य ही गिर जाते है उन्ही फलों के समान परिपक्व (वृद्ध) हो जाने पर शरीर का पतन निश्चित ही है ।
विलम्बो नैव कर्तव्यः आयुर्याति दिने – दिने ।
न करोति यमः क्षान्तिं धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥
किसी भी कार्य में विलम्ब नहीं करना चाहिए क्योंकि आयु प्रतिदिन घटती जाती है । इस संसार में कुछ भी रुकता नहीं है मृत्यु कभी विराम नहीं लेती और धर्म की गति तो त्वरित होती है तीव्र होती है ।
धर्मस्य दुर्लभो ज्ञाता सम्यक् वक्ता ततोऽपि च ।
श्रोता ततोऽपि श्रद्धावान् कर्ता कोऽपि ततः सुधीः ॥
इस कलिकाल के संसार में धर्म को जानने वाले सज्जन लोग दुर्लभ है और उस धर्म को उत्तम रीति से श्रेष्ठ पद्धति से समाज में बतलाने वाले उससे भी अधिक दुर्लभ हैं । अगर भगवत्कृपा से ये मिल भी जाए तो इस कलयुग में धर्म को श्रद्धा से सुनने वाले श्रद्धावान् श्रोता अत्यन्त दुर्लभ हैं और इससे भी अधिक दुर्लभ सद्बुद्धिमान् धर्म का आचरण करने वाला है ।
धर्मादर्थः प्रभवति धर्मात्प्रभवते सुखम् ।
धर्मेण लभते सर्वं धर्मसारमिदं जगत् ॥ वाल्मीकि रामायणम् (३.९.३०)
धर्म से ही अर्थ की प्राप्ति सम्भव है और धर्म से ही समस्त सुखों की प्राप्ति होती है । धर्म ही एकमात्र साधन है जो सब कुछ प्रदान कर सकता है अतः इस मर्त्यलोक संसार में धर्म ही साररुप में विद्यमान है ।
प्रदोषे दीपकश्चंद्र: प्रभाते दीपको रवि:।
त्रैलोक्ये दीपको धर्म: सुपुत्र: कुलदीपक:॥
प्रदोष काल की वेला में दीपकरुपी प्रकाश का साधन चन्द्रमा होता है, प्रभात वेला में सूर्य प्रकाश का साधन होता है । तीनों लोकों मे प्रकाश देने वाला एक मात्र धर्म है इसी के द्वारा तीनो लोक प्रकाशित होते है और कुल को प्रकाशित अर्थात् गौरवान्वित करने वाला सुपुत्र कुल का दीपक होता है ।
Sanskrit Shlok On Sanatan Dharma
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः ॥ – मनुस्मृति,अध्याय 4,श्लोक 138
मनुष्य को सर्वदा सत्य बोलना चाहिए लेकन ऐसा भी सत्य नहीं बोलना चाहिए जो अप्रिय हो या किसी को आहत करे । और कभी भी ऐसी प्रिय वाणी भी नही बोलनी चाहिए जो असत्य हो । यही सनातन धर्म है और इसका सदैव पालन करना चाहिए ।
अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।
अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः॥ – महाभारत,शान्तिपर्व
संसार के किसी भी प्राणी पर द्रोह की भावना नही रखनी चाहिए सर्वदा अनुग्रह और दान का भाव रहना चाहिए और यह भाव मन, वाणी और कर्म तीनों विधियों से पालनीय होना चाहिए । यही सज्जन लोगों का सनातन धर्म है ।
न हि वैरेण वैराणि शाम्यन्तीह कदाचन ।
क्षान्त्या वैराणि शाम्यन्ति एष धर्मः सनातनः ॥ -उदानवर्ग,द्रोहवर्ग १४.११
(न हि वेरेण वेराणि सम्मन्तीध कुदाचनम् ।
अवेरेण च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो ॥ -धम्मपद,यमकवग्ग)
इस संसार में वैर अर्थात् शत्रुता या वैमनस्य का प्रतिकार शत्रुता से नही किया जाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से शत्रुता समाप्त नहीं होती । शत्रुता को केवल क्षमा और सद्भावना से ही शान्त किया जा सकता है और यही सनातन धर्म है ।
आतुरे नियमो नास्ति बाले वृद्धे तथैव च ।
पराचाररते चैव एष धर्मः सनातनः ॥ – महासुभाषितसंग्रहः
आतुर अर्थात् रोगी के लिए, बालक के लिए तथा वृद्ध व्यक्ति के लिए जिस प्रकार अपरिवर्तनशील कठोर नियम नहीं होते हैं उसी प्रकार परोपकार कार्यों में लगे हुए व्यक्ति के लिए भी कठोर नियम नहीं होते है यही सनातन धर्म कहा गया है ।
अकृत्यं नैव कर्तव्यं प्राणत्यागेऽपि संस्थिते।
न च कॄत्यं परित्याज्यमेष धर्मः सनातनः॥
जो करने योग्य नही है या जो परिहार्य है ऐसे कर्म कभी नहीं करने चाहिए चाहे प्राण ही संकट में क्यों न हो । और करने योग्य अपनाने योग्य कर्म का कभी त्याग नहीं करना चाहिए । यही सनातन धर्म कहलाता है ।