Bharatiya Sanskriti

भारतीय संस्कृति एक वैज्ञानिक संस्कृति

Spread the love


भारत देश सनातन संस्कृति वाला देश है । विश्व का एक मात्र ऐसा देश जहाँ हजारों वर्षों से चली आ रही संस्कृति आज भी जीवित है और अब भी फल फूल रही है । इस देश की संस्कृति सनातन कही जाती है सनातन का अर्थ होता है जो पहले भी था आज भी है और आगे भी रहेगा । अन्य अर्थों में कहा जाए तो सनातन शब्द शाश्वत अर्थ को प्रतिबिंबित करता है । हमें गर्व अपनी सनातन संस्कृति पर जो अनन्य रुपों में जीवन से जुडी हुई है । हमारी संस्कृति वास्तव में एक विज्ञान है जो कि निरंतर खोज के लिए प्रेरित करती है । इसमें कहीं भी रुकने या स्थिर होने के लिए प्रेरणा नहीं है लेकिन स्थिरता का भाव अवश्य है । यह बात हमें विरोधाभास प्रतीत हो सकती है किन्तु यही दर्शन और विज्ञान हमारी खोज के कारण बनते है । यहाँ न रुकने से तात्पर्य है निरन्तरता या जीवन के प्रत्येक क्षण में किसी खोज के लिए प्रेरित रहना । इसी प्रकार स्थिरता का भाव हमें चिन्तन मनन के द्वारा विषय की गहराइयों तक जाने के लिए प्रेरित करता है साथ ही सांसारिक विषयों के प्रति रुकने के लिए समझाता है । इतना अलौकिक विज्ञान सहजता से हमें हमारे शास्त्रों में मिल जाता है इस मूल ज्ञान को प्राप्त करने के लिए पाश्चात्य विद्वान अपनी अनेकों पीढीयां खर्च कर चुके है लेकिन फिर भी आज तक अनेकों ऐसे रहस्य है जो कि मान्यताओं के रुप में भारत में विद्यमान है और वैज्ञानिक भी हैं ।
कुछ वर्षों पहले तक हमें अपनी संस्कृति और विज्ञान की पूर्ण जानकारी हुआ करती थी किन्तु कालान्तर में हम अपने शास्त्रों और अपने सांस्कृतिक मूल्यों से विमुख होते गए । इसका परिणाम यह हुआ कि आज हमारे द्वारा खोजा हुआ विज्ञान भी पाश्चात्य पद्धति के माध्यम से पढना और समझना पडता है । हम अपनी सनातन संस्कृतभाषा को छोडकर पाश्चात्य भाषा में लिप्त होते चले गए जिसके कारण शास्त्र से अलगाव बढा और शास्त्र शिक्षण समाप्ति तक आ गया । किसी समय में भारत में हजारों की संख्या में गुरुकुल हुआ करते थे जिनमें अनेकों शास्त्रों को पढाया जाता था । जिसके प्रमाण पुस्तकों तथा पुरातत्व विभाग को अनेकों स्थलों पर प्राप्त हुए हैं । वेद विश्व की प्राचीनतम पुस्तक अथवा ज्ञान का स्रोत माने जाते हैं । जिनका निश्चित काल आज तक भी कोई ज्ञात नहीं कर पाया है । वेदों की अनेक शाखाएं भारत में प्रचलित थी इसका वर्णन महर्षि पतंजली ने अपने महाभाष्य नामक ग्रन्थ में किया है –
चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुधा भिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः, एकविंशतिधा बाहवृच्यं, नवधाऽऽथर्वणो वेदाः । (महाभाष्य, प्रथम आह्निक)
अर्थात् यजुर्वेद की १०१ शाखाएं, सामवेद की १००० शाखाएं, ऋग्वेद की २१ शाखाएं तथा अथर्व वेद की ९ शाखाएं हैं ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है ।
प्राचीनतम होने के बाद भी वेदों में प्राप्त होने वाले विषय पूर्णतः वैज्ञानिक है तथा विश्व के समस्त वैज्ञानिक वेदों के सामने नतमस्तक होते है कि ऐसा अद्भुत ज्ञान कही और प्राप्त ही नही हो सकता । वेदों की एक-एक ऋचा एक-एक मंत्र एक शोध का विषय है । वेदों में संसार के प्रत्येक विषयों को मंत्र विधा से समझाया गया है । शास्त्रों में हजारों वर्ष पूर्व ईश्वर नामक एक तत्त्व की चर्चा की गई है जो कि संसार को एक दूसरे से जोड कर रखता है । कुछ वर्षों पूर्व तक इसे भ्रम या अंधविश्वास कहा जाता था लेकिन आज संपूर्ण विश्व के वैज्ञानिक गोड पार्टिकल की खोज का उल्लेख कर रहे है । यह गोड पार्टिकल वही है जिसे हमारे शास्त्र ईश्वरीय तत्त्व के रुप में कहते आए है । पृथ्वी की आकृति गोल होती है यह खोज किसी पाश्चात्य वैज्ञानिक ने की है किन्तु हमारे प्रत्येक शास्त्र में जहाँ – जहाँ भूमि से संबन्धित विषय का उल्लेख किया गया है वहाँ भूगोल शब्द का प्रयोग देखने को मिलता है । भूगोल शब्द में भू अर्थात् पृथ्वी और गोल उसकी आकृति । शब्द स्वयं अपने अर्थ को प्रतिपादित कर रहा है ।
मध्ये समन्तादण्डस्य भूगोलो व्योम्नि तिष्ठति ।
बिभ्राणः परमां शक्तिं ब्रह्मणो धारणात्मिकाम् ॥ — (सूर्य सिद्धान्त: भुगोलाध्याय – ३२)
यह पद्य आर्यभट्ट के द्वारा लिखा गया है जिसमें पृथ्वी को भूगोल कहा गया है तथा अंतरिक्ष में कौनसा बल किस प्रकार से पृथ्वी को धारण करता है इसका संकेत भी दिया है । यहाँ वस्तुतः गुरुत्वाकर्षण बल को बतलाने का प्रयास किया गया है । गुरुत्वाकर्षण का नाम सुनते ही हमारे मस्तिष्क में आइजक न्यूटन का ही नाम स्मरण होता है जबकि वास्तविकता यह है कि हमारे प्राचीन आचार्य सिद्धान्त शिरोमणि भास्कराचार्य ने 1150 ई. में गुरुत्वाकर्षण की खोज की । उन्होने कहा है –
आकृष्टिशक्तिश्च महि तपायत् स्वस्थं गुरुस्वभिमुखं स्वशक्त्या ॥
आकृष्यते तत्पततीव भाति समेसमत्वात् न पतत्वियं खे ॥ (सिद्धान्त शिरोमणी गोल-अध्याय – 3)
अर्थात् पृथ्वी के भीतर जो शक्ति है वह आकृष्टि अथवा आकर्षण की शक्ति है । इसी शक्ति के कारण पृथ्वी किसी भी वस्तु को अपनी ओर आकर्षित करती है यह शक्ति पृथ्वी की अपनी स्वाभाविक शक्ति है इसी कारण धरती पर प्रत्येक वस्तु गिरती हुई नजर आती है । वस्तु के गिरने की गति भार पर निर्भर करती है अतः यह आकर्षण गुरुत्व का आकर्षण है इनके 600 वर्षों बाद न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के नियम में इसी सिद्धान्त को दोहराया है । इसी प्रकार के अनेक विषय है जिनका हमें ज्ञान नही है अथवा जिनको हम पाश्चात्य की खोज मानते हैं ।

भारतीय संस्कृति में गुरु परम्परा का प्रभाव आदिकाल से ही रहा है । इसी अद्वितीय परम्परा का ही प्रभाव होगा कि भारत को विश्वगुरु कहा जाता था । भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतमा संस्कृति है । भारतीय संस्कृति के अनुसार नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास से होता है जो कि अंग्रेजी माह मार्च-अप्रेल में आता है । ऐसी मान्यता है कि चैत्र मास की प्रतिपदा तिथि को ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण आरम्भ किया था । इस तथ्य को समाज में काल्पनिक कथा कहा जा सकता है लेकिन प्रकृति की दृष्टि से देखें तो चैत्र मास में वसन्त ऋतु होती है । वसन्त ऋतु के विषय में हम भली भांति परिचित हैं कि यह ऋतु नए जीवन को जन्म देने का सामर्थ्य रखती है । प्रकृति में प्राय हर प्रकार के जीवन संचार का आरम्भ इसी ऋतुकाल में होता है । यही वसन्त काल मधुमास भी कहा गया है । साहित्य शास्त्र में मधुमास के अनेक वर्णन प्राप्त होते हैं जो कि प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य की व्याख्या करते हैं और नए विकसित जीवन को द्योतित करते है । यही हमारे शास्त्रों की वैज्ञानिक दृष्टि है । इसके अतिरिक्त भी कुछ कारण है जिनके द्वारा भारतीय नव वर्ष की परम्परा प्रमाणित होती है जैसे – भगवान् विष्णु के द्वारा दशावतारों में प्रथम मत्स्य अवतार आज ही के दिन लिया गया था । उन्होने मत्स्य अवतार लेकर प्रलय काल में मनु की नौका को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया और कालान्तर में मनु के द्वारा ही नई सृष्टि का आरम्भ हुआ । मनु से उत्पन्न होने के कारण ही हम मनुष्य अथवा मानव कहे जाते है । हमारी परम्परा के वर्ष का आरम्भ और पर्यवसान (समाप्ति) भी मधुमास में ही होती है । भारतीय वर्ष का प्रथम मास चैत्र तथा अन्तिम मास फाल्गुन दोनो ही वसन्त ऋतु में आते है । इसी मास में सूर्य प्रथम राशि मेष में प्रवेश करते हैं अतः ज्योतिष-विज्ञान की दृष्टि से भी यह मास क्रम महत्वपूर्ण है ।
सम्पूर्ण भारत देश में आज के दिन अनेक प्रकार से इस दिन को उत्सव की भांति मनाया जाता है । जिसका कि सांस्कृतिक व पौराणिक महत्व भी है । आंध्रप्रदेश और तेलंगाना राज्यों में यह दिन उगादिनाम के नाम से मनाया जाता है । उगादि का अर्थ होता है युग का प्रारम्भ अथवा सृष्टि रचना का प्रथम दिवस । जम्मू-कश्मीर में यह दिन नवरेह के नाम से मनाया जाता है, पंजाब में बैसाखी, महाराष्ट्र में गुडीपडवा,, सिंध में चेतीचंड तथा असाम में रोंगली बिहू के नाम से हर्षोल्लास से मनाया जाता है ।
आदिकाल से चली आरही परम्पराओं के अनुसार भारत के अनेक व्यापारी वर्ग के लोग आज के दिन से ही खाता-बही की नई शुरुआत करते है । इसका कारण यह है कि हम आज भी न केवल शरीर से अपितु आत्मा से भी अपनी संस्कृति से जुडे हुए है बस उसके पीछे के कारणों को नहीं जानते क्योंकि हमने अपनी भाषा का त्याग कर दिया है । ऐसी भाषा जो हमें अपने संस्कारों और संस्कृति से हमेशा जोड कर रखती है । इसीलिए कहा गया है – भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा । अर्थात् भारत की दो ही प्रतिष्ठाएं हैं संस्कृतभाषा और संस्कृति । अगर हम अपनी सभ्यता अपनी संस्कृति से जुडे रहकर आदर्श जीवन जीना चाहते है तो संस्कृत की समझ होना अत्यन्त आवश्यक है । संस्कृत हमें हमारे शास्त्रों का ज्ञान देती है हमें अपनी परम्परा से जोड कर रखती है । संस्कृत भारत की प्राणस्वरुपा शक्ति है ।
इस शक्ति को आत्मसात करने के लिए आज के समाज को संस्कृत के अध्ययन और अध्यापन को सशक्त बनाना चाहिए । संस्कृत के अध्ययन और अनुसंधान से पाश्चात्य देश जो कभी विकास का मार्ग खोजा करते थे आज विकसित देशों में गिने जाते है । भारत वर्ष का गौरव कहलाने वाली तकनीक तथा वैज्ञानिकता से परिपूर्ण संस्कृत भाषा को जानने और समझने के लिए आज से ही संस्कृत की ओर कदम बढाने की आवश्यकता है ।


Spread the love

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.