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महर्षि वाल्मीकि संस्कृत साहित्य के आदिकवि माने जाते है

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वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्

महर्षि वाल्मीकि संस्कृत साहित्य के आदिकवि माने जाते है । इनका महाकाव्य हिन्दू संस्कृति और समाज का आधार स्तम्भ है । भारतीय परम्पराओं में वाल्मीकि विरचित रामायण को देवत्व का स्थान प्राप्त है । समय – समय पर इसका पारायण तथा पूजन किया जाता है । वाल्मीकि रामायण सनातन संस्कृति का प्रतीक है । इस ग्रन्थ में मनुष्य के नैतिक मूल्यों को प्रायोगिक रुप में प्रदर्शित किया गया है । मनुष्य की कर्तव्य परायणता को भगवान् राम के जीवन से समझाया गया है । मनुष्य को अपने वचनों के प्रति सजग होना चाहिए तथा सदैव धर्म का पालन करना चाहिए इस प्रकार के भावों को स्पष्ट करने वाला यह ग्रन्थ भारतीय समाज का प्रतिबम्ब है । रामायण के आधार पर अनेकों ग्रन्थों में मनुष्य के कृत्य-अकृत्य कर्मों का उदाहरण देकर उल्लेख किया गया है – रामादिवत् वर्तितव्यं न रावणादिवत् ।
वाल्मीकि द्वारा रचा गया त्रैतायुग का इतिहास आज तक मानव समाज का पथ प्रदर्शित करता है । राम और रावण का भेद समझ कर आज भी लोग अपने जीवन को सार्थकता के पथ पर अग्रेषित करते हैं । भारतीय संस्कृति का सजीव चित्रण रामायण में तथा तत्कालीन समाज में प्रतिबिम्बित होता है । स्वयं वाल्मीकि का जीवन भी ज्ञान मार्ग के अनुसरण से देवत्व को प्राप्त हुआ है । महर्षि वाल्मीकि भी आरम्भ से ऋषि परम्परा के नहीं थे । वस्तुतः वाल्मीकि एक डाकू थे । जिनका नाम रत्नाकर था । एक कथा के अनुसार रत्नाकर (वाल्मीकि) ने अपने लूट-पाट के कर्म के अनुसार मुनि नारद को लूटने के उद्देश्य से उनका मार्ग रोक लिया और उन्हे लूटना चाहा । तब नारद मुनि ने प्रश्न किया कि ये सब दुष्कर्म तुम क्यों करते हो ? तब रत्नाकर ने उत्तर दिया कि- अपने परिवार के लिए उनके भरण-पोषण के लिए।
नारदमुनि ने पुनः प्रश्न किया कि इस कर्म के फलस्वरूप जो पाप का भााग तुम्हें प्राप्त होगा, उसका दण्ड मात्र तुम्हे मिलेगा या तुम्हारे परिवार को भी मिलेगा ? नारद मुनि के प्रश्न का उत्तर जानने के लिए रत्नाकर अपने घर गए। और परिवार जनों से पूछा कि – मेरे द्वारा किए गए कर्म के फलस्वरूप मिलने वाले पाप के दंड में क्या तुम मेरा साथी बनोगे ? रत्नाकर का प्रश्न सुनकर सभी परिजनों ने मना कर दिया । रत्नाकर ने वापस आकर यह वृत्तान्त नारद मुनि को बताया । तब नारद मुनि ने कहा कि – जिस परिवार के लिए तुम बुरे कर्म करते हो यदि वे ही तुम्हारे पाप में भागीदार नहीं बन सकते तो फिर क्यों तुम यह पापकर्म करते हो ? इस कार्य को त्याग कर अपने जीवन को सार्थक करने का प्रयत्न करो । नारद मुनि की बात सुनकर रत्नाकर के मन में वैराग्य जागृत हो गया और अपने पाप कर्मों के प्रति ग्लानि भाव भी मन में आया । अपने उद्धार का उपाय पूछने पर नारद मुनि ने इन्हें रामरुपी मन्त्र का जाप करने के लिए कहा । इस प्रकार एक डाकू के मन का यह परिवर्तन वाल्मीकि के उदय का कारण बना । यह घटना अश्विन मास की पूर्णिमा को घटित हुई अतः वही दिन वाल्मीकि जयन्ती के नाम से मनाया जाता है । रत्नाकर ने वन में अपने लिए एकांत स्थान खोजा और बैठकर राम मन्त्र जपने लगे । कई वर्षों तक कठोर तप के कारण उनके पूरे शरीर पर चींटियों ने बाँबी बना ली थी । इसी वजह से इनका वाल्मीकि पड़ा । तपस्या के समय एक शिकारी ने वन में क्रोञ्च पक्षी के युगल में से नर क्रोञ्च को मार दिया जिसके विरह में मादा क्रोञ्च अत्यन्त तीव्र करुण स्वर में चित्कार करने लगी । यह चित्कार सुन वाल्मीकि का हृदय द्रवित हो गया और शिकारी के लिए शाप वाक्य निकला –

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ।। (रामायण, बालकाण्ड)

हे निषाद तुम अनन्त वर्षों तक प्रतिष्ठा को प्राप्त न कर सको क्योंकि तुमने काममोहित क्रौञ्चपक्षी के युगल में से एक की हत्या की है ।
इस शाप वाक्य में करुणरस की प्रगाढ अनुभूति थी ।

वाल्मीकि जी ने नारद जी से संक्षिप्त कथा सुनकर राम के नाम को सार्थक करने वाला राम पर आश्रित रहने वाला रामायण रुपी महान्तम और ऐतिहासिक महाकाव्य लिखने की प्रेरणा से महाकाव्य का लेखन आरम्भ किया । कालांतर में महर्षि वाल्मीकि का महाकाव्य रामायण के रुप में प्राप्त हुआ ।


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