Personality Development by Sanskrit Shlokas संस्कृत के द्वारा व्यक्तित्व निर्माण

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यह हम सभी को विदित है कि भारत देश एक समय पर विश्व गुरु पद पर सुशोभित था । तदन्तर आज तक यह सौभाग्य किसी अन्य देश को प्राप्त नहीं हुआ है । विचारणीय विषय यह है कि ऐसे कौनसे कारण रहे कि भारत के उपरान्त अन्य देश इस पद को प्राप्त करने हेतु स्वयं को योग्य नहीं बना पाए ?
वस्तुतः इसके पीछे हमारी शिक्षा पद्धति और संस्कृति है । हमारी संस्कृति की राष्ट्रभावना है – वसुधैव कुटुम्बकम् । इसका अर्थ है कि सम्पूर्ण पृथ्वी मेरा परिवार है । जब तक कोई सम्पूर्ण वसुधा को परिवार रुप में स्वीकार करता है तो उस पर अनेक दायित्व भी होते है । आज की संस्कृति में जहाँ संयुक्त परिवार की परम्परा लगभग लुप्त हो गई है वहाँ संपूर्ण वसुधा को परिवार मानना कितना कठिन है, आप और हम यह अनुभव कर सकते हैं । हमारी संस्कृति हमें विच्छेदन और विघटन नहीं सिखाती । हमारी संस्कृति हमें दायित्वों के लिए योग्य बनाती है । हमारी संस्कृति में वह क्षमता है कि हमें विश्वपोषक तत्त्व की शिक्षा दे सके । आधुनिकरण की दौड में हम अपनी योग्यता को खो चुके हैं । आज का मनुष्य एक संयुक्त परिवार का भरण-पोषण नहीं कर पाता इसलिए एकल परिवार की और भगता है । लेकिन हमारी संस्कृति में एकल परिवार की संकल्पना ही नहीं है । क्योंकि हम उस रघुकुल परम्परा को आदर्श मानते है जिसमें एक पुत्र अपने पिता के वचनों की पूर्ति के लिए सम्पूर्ण राज-पाट छोड कर वनवासी हो जाता है । आज का मनुष्य जिम्मेदार नहीं होना चाहता और यही कारण है कि मनुष्य अपनी योग्यता को पूर्ण विकसित नहीं कर पाता । अगर दायित्व बड़ा होगा तो योग्यता भी उसके अनुकूल ही होगी ।
वसुधैव कुटुम्बकम् यह वाक्य हमारी राष्ट्रभावना के साथ – साथ हमारी संस्कृति और तत्सम्बद्ध भाषा के गौरव को भी अभिव्यक्त करता है । मनुष्य अपने जीवन के लिए जो मूल्य निर्धारित करता है वे जीवन के व्यक्तित्व को भी प्रदर्शित करते हैं । हमारा चयन हमारी योग्यता का भी सूचक होता है । जीवन में अनेक अवसर ऐसे आते है जब हम अपने चयन से अपने जीवन की दिशा निर्धारित करते है । उदाहरणार्थ शिक्षा का क्षेत्र जहाँ माध्यमिक कक्षा के उपरान्त विषयों का चयन, उच्च माध्यमिक कक्षा के उपरान्त शिक्षण क्षेत्र का चयन, स्नातक कक्षा के उपरान्त पदव्युत्तर में विषय का चयन इस प्रकार अनेक स्थलों पर हमारा चयन हमारे जीवन की दिशा बनता है । इसलिए जब भी कभी यह अवसर प्राप्त हो कि हम अपने इतिहास अपनी संस्कृति के बारे में जान सके कुछ पढ सकें तो अवश्य जानना चाहिए ।
सम्पूर्ण विश्व में भारत वर्ष का इतिहास सबसे अधिक गौरवशाली इतिहास है । हमें स्वयं पर गर्व होना चाहिए तथा ईश्वर को प्रतिदिन धन्यवाद अर्पित करना चाहिए कि हमें भारत में जन्म देकर उस गौरवशाली इतिहास वाले देश का अङ्ग बनने का अवसर दिया । भारत देश के गौरवशाली इतिहास के अनेक कारण है उनमें से एक महत्वपूर्ण कारण भाषा भी है । वह भाषा जिसको आज सम्पूर्ण विश्व आदरपूर्वक मस्तक पर धारण करता है । वह भाषा जिसका शास्त्र, जिसका साहित्य, जिसका दर्शन हमें अनेक प्रेरणाओं के द्वारा योग्य बनाता है निरन्तर हमारे व्यक्तित्व को सुदृढ करता है हमारे चरित्र को सम्बल प्रदान करता है । वह भाषा है संस्कृत । संस्कृतभाषा के विद्यार्थी को व्यक्तित्व निर्माण तथा उसके विकास के लिए अतिरिक्त परिश्रम नहीं करना पडता है क्योंकि जिस भाषा को वह पढ रहा है वह भाषा अपने आप में व्यक्तित्व विकास का प्रेरणा स्रोत है ।
यह भाषा विद्यार्थी को एक एक क्षण का महत्व बतलाती है –

क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थञ्च साधयेत् ।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ।।


अर्थात् एक एक कण का मूल्य न समझकर उसे नष्ट कर देने से एक दिन सम्पूर्ण धन ही नष्ट हो जाता है तथा एक एक क्षण का महत्व न समझकर उसको नष्ट करने से विद्या भी नष्ट हो जाती है । अतः प्रत्येक क्षण में विद्या और प्रत्येक कण में धन का रक्षण करना चाहिए ।
इस प्रकार संस्कृत भाषा का प्रत्येक शब्द व्यक्तित्व विकास के लिए प्रेरणा देने वाला है । जो भी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे गए है वे सभी मनुष्य को दसो दिशाओं से व्यक्तित्व निर्माण और व्यक्तित्व विकास की प्रेरणा देते है । संस्कृत भाषा का सबसे न्यूनतम शब्द जिसे कभी-कभी अपशब्द के रुप में भी प्रयुक्त किया गया है वह शब्द है – अधम । अधम शब्द प्रायः निम्न निकृष्ट इत्यादि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । संस्कृतनिष्ठ रसशास्त्र की एक पुस्तक रसमञ्जरी में इस शब्द की व्याख्या में लिखा है –कर्त्तव्याकर्त्तव्याविचारकत्वम् । अर्थात् कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का अविचारकत्व जिसमें होगा वह अधम है । यहाँ शास्त्र मनुष्य को यह शिक्षित करने का प्रयास कर रहा है कि तुम अपने कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का विचार नही कर रहे हो इसलिए तुम अधम हो अगर तुम कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का विचार करने की क्षमता अगर स्वयं में पैदा कर लो तो इस अधमत्व से मुक्त हो सकते हो ।
संस्कृत निष्ठ ग्रन्थ सदैव मनुष्य जाती के लिए प्रेरणा के स्रोत रहें हैं । संस्कृत भाषा विश्व की एक मात्र ऐसी भाषा है जो कि पूर्णतः प्रायोगिक है अतः आज तक किसी भी संस्कृत निष्ठ ग्रन्थ में अनैतिक या अप्रायोगिक वक्तव्य प्राप्त नहीं होते हैं । संस्कृत भाषा के अन्तर्गत अनेक सुभाषित हैं जो कि संस्कृत पाठ्यपुस्तकों में पढने के लिए उपलब्ध हैं उनका उपयोग पढना मात्र नहीं है उनके उपदेश से जीवनमूल्यों की उचित परख व विकास का कार्य किया जा सकता है । अगर मनुष्य उन उपदेशों को व्यवहार में लाना आरम्भ कर दे तो अनेक विषादों का शमन स्वतः हो सकता हैं । भारतीय संस्कृति का आदि काव्य है रामायण । रामायण के अन्तर्गत एक प्रसङ्ग है जिसमें अङ्गद रावण को समझाने तथा राम का संदेश देने जाते हैं । यहाँ चिन्तन का विषय यह है कि अङ्गद प्रायः उस सेना के बालक सिपाहियों में से हैं लेकिन फिर भी राम की सीख ने उन्हे इतना उत्साहित (Motivate) कर दिया कि वो रावण के सामने जाकर न केवल भगवान् राम का संदेश देकर आए अपितु रावण को यह अहसास करवा कर आए कि उसका सामना उनके साथ है जिनकी सेना के बच्चे भी रावण को अपने कदमों मे झुकाने का साहस रखते हैं । ऐसी वीर गाथा ऐसा गौरव ऐसा इतिहास विश्व के किसी कोने में उपलब्ध नहीं है । हम अपने गौरव को भूल गए है उस गौरव को प्राप्त करना परम आवश्यक है इसके लिए संस्कृति और संस्कृत की समझ आवश्यक है । इसीलिए कहा गया है – भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिस्तथा


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